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Jain Stotra - PuchhiSunam Meaning

श्री वीर स्तुति (वीरथुइ)

पुच्छिसुं ’  अथवावीरथुइके नाम से जैन जगत में प्रसिद यह महावीर स्तुति बड़े ही आदर एवं श्रद्धा के साथ साधकों द्वारा गायी जाती है, स्वाध्याय रूप भी गुनगुनाई जाती है।प्रस्तुत स्तुतिसूत्रकृतांग सूत्रके प्रथम श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन से ली गायी है। सूत्रकृतांग सूत्र कालिक सूत्र होने से इस स्तुति का स्वाध्याय भी ३४ अस्वाध्याय टालकर दिन-रात्रि के प्रथम एवं अंतिम प्रहार में ही करना चाहिये।वीर स्तुति में कुल २९ गाथाएँ हैं जिनकी प्रथम द्वितीय गाथा में जम्बूस्वामी द्वारा भगवान महावीर के बारे में जिज्ञासा रूप प्रश्न किया है, जिज्ञासा का विषय भी इंगित किया है कि मैं भगवान के ज्ञान-दर्शन-शील आदि के बारे में जानना चाहता हूँ।तीसरी से अट्ठाईसवी तक २६ गाथाओं में उतर में आर्य सुधर्मा स्वामी द्वारा प्रभु की स्तुति विभिन्न रूपकों उपमाओं से की गई है, उनका ज्ञान-दर्शन आचार पक्ष प्रस्तुत किया गया है एवं अंतिम २९वी गाथा में अरिहंत परुपित धर्म की श्रद्धा आराधना से होने वाले फल का निर्देश किया गया है।


आर्य जंबु स्वामी अपने गुरु एवं भगवान के प्रथम पटधर  श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते है कि अनेक, साधु, ब्राह्मण, गृहस्त एवं अन्य तीर्थियो ने पूछा है कि वह महापुरुष कौन है जिसने समीक्षा करके पूर्ण रूप से जानकार के एकांत हितकारी और अनुपम धर्म को कहा है, बताया है। ()


जंबु स्वामी सुधर्मा स्वामी से पूछते है, उन ज्ञानपुत्र भगवान का ज्ञान कैसा था? दर्शन कैसा था? और शील अर्थात चारित्र और व्यवहार कैसा था? अहो भगवान! आप जानते हो अतः आपने जैसा सुना और जैसा निश्चय कीया , वह सब मुझे भली प्रकार से बताइए। ()


हे जंबु! भगवान महावीर सभी प्राणियो के दुःख के ज्ञाता अथवा सम्पूर्ण क्षेत्र के ज्ञाता एवं कुशल (कर्म काटने में निपुण) महर्षि थे। वे अनंतज्ञानि एवं अनंतदर्शी थे। वे यशस्वी थे एवं भव्य जीवों के चक्षु पथ मैं स्तिथ थे। तुम उनके धर्म और धैर्य को देखो और जानो, विचारो (


ऊँची, नीची, तिरछी दिशाओं में जो भी त्रस एवं स्थावर प्राणी है भगवान ने अपनी सम्यक् प्रज्ञा (केवल ज्ञान) में उनके नित्यतव और अनित्यतव को जानकर उनके आधार के लीये दीपक अथवा द्वीप रूप धर्म का सम्यक् रूप से कथन कीया है। (


वे प्रभु महावीर सर्वदर्शी एवं अभिभूत ज्ञानी (केवल ज्ञानी) थे। वे शुद्ध चारित्र का पालन करने में धैर्यवान थे और आत्मस्वरूप मैं स्तिथ आत्मा थे। सम्पूर्ण जगत से रहित एवं निर्भय तथा आयु रहित अर्थात् जन्म मरण से रहित थे। (


वे प्रभु महावीर भूतिप्रज्ञ एवं अनियत आचारी थे अर्थात् स्व-विवेक से विचरण करने वाले थे, संसार सागर से तीरे हुए तथा धैर्यशाली एवं केवलदर्शी थे। साथ ही वेरोचनेंद्र - तेज़ जाज्ज्वल्यमान अग्नि के समान अज्ञान अंधकार का नाश करने वाले एवं वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने वाले थे (


आशुप्रज्ञ  (अनंत/केवलज्ञानी ) काश्यप गोत्रीय मुनि श्री भगवान महावीर स्वामी महाप्रभावशाली (महानुभाव) एवं आदि ऋषभ से पार्श्व तक संचालित इस उत्तम धर्म के नेता है, जैसे देवलोक में इंद्र सभी देवताओं से श्रेष्ठ है, वैसे ही भगवान सर्वश्रेष्ट है। ()


वे भगवान महावीर प्रज्ञा में अंत रहित पार वाले स्वयंभूरमण महासागर के समान अक्षय ज्ञान सागर है एवं कर्म से रहित, कषाय रहित तथा ज्ञानवर्नियादि अष्ट कर्म से मुक्त है। साथ ही देवताओं के इंद्र शकेंद्र के समान ज्योतिमान अर्थात् तेजस्वी है। ()


वे भगवान महावीर वीर्यांतराय कर्म के क्षय हो जाने से प्रतिपूर्ण वीर्य वाले है, जैसे समस्त पर्वतों में सुदर्शन मेरु श्रेष्ट है उसी प्रकार भगवान महावीर वीर्य आदि आत्मगुणो में सर्वश्रेस्ट्ठ है। जैसे देवलोक अनेक प्रसस्थ वर्ण-गंधादी गुणो से अपने निवासी देव-देवियों के लिये हर्षजनक है वैसे ही भगवान महावीर अनेक गुण युक्त होकर सभी प्राणियो के लिये हर्षजनक के रूप में विराजमान है। ()


सुमेरु एक लाख (सो हज़ार) योजन ऊँचा है, उसके तीन काण्ड या विभाग है और सबसे ऊपर पंडक वन है जो पताका के रूप में सोभायमान है। वह सुमेरु पर्वत ९९ हज़ार योजन समतल पृथ्वी से ऊँचा तथा हज़ार योजन ज़मीन के अंदर नीव रूप है। (१०)


वह सुमेरु पर्वत भूमि के अंदर से आकाश तक ऊपर स्तिथ होने से तीनो लोकों को स्पर्श करता हुआ स्तिथ है। सूर्य आदि ज्योतिषी विमान इसकी परिक्रमा करते रहते है। वह सुमेरु स्वर्ण वर्ण वाला (सोने के रंग वाला) एवं नंदन आदि अनेक वनो वाला है जहाँ देवों के महान इंद्र भी रति (आनंद) का अनुभव करते है। (११)


वह सुमेरु पर्वत अनेक शब्दों (नामों) से प्रकाशित (प्रसिद्ध) है, घिसे हुए सोने के रंग समान चमक वाला है। वह अनुतर श्रेष्ठ पर्वत अनेक मेखला आदि होने से दुर्गम है तथा अनेक प्रकार कि मणियो औषधियों से प्रकाशित है। (१२)


वह नागेन्द्र पर्वतराज पृथ्वी के मध्य भाग में स्तिथ है एवं सूर्य के समान तेज़ कांति युक्त प्रतीत होता है। इस प्रकार वह अपनी शोभा से अनेक वर्णो वाला एवं मनोहर है तथा सूर्य की ही तरह दसों दिशाओं की ज्योतित (प्रकाशित) करता है। (१३)


उस महान पर्वत सुदर्शन का यश पुर्वोक्त प्रकार से कहा जाता है, भगवान महावीर भी उसी प्रकार जाति, यश, दर्शन, ज्ञान एवं शील में अनेक गुणों से युक्त सर्वश्रेष्ट है। (१४)


जैसे आयताकार (लंबाकार) पर्वतों में निषध एवं वलयाकार पर्वतों में रुचक पर्वत श्रेष्ठ है। उसी प्रकार सभी मुनियों में जगत् के ज्ञानी (जगत् भूतिप्रज्ञ) महावीर श्रेष्ठ है ऐसा प्रज्ञावान पुरुषों ने कहा है। (१५)


भगवान महावीर स्वामी, सर्वोतम धर्म बताकर, सर्वोतम ध्यान ध्याते थे। उनका ध्यान अत्यंत शुक्ल वस्तु के समान, जल के फ़ेन के समान दोष रहित शुक्ल था तथा शंख और चंद्रमा के समान शुद्ध था। (१६)


महर्षि भगवान महावीर स्वामी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रभाव से ज्ञानवरणीय आदि समस्त कर्मों को क्षय करके सर्वोत्तम उस सिद्धि को प्राप्त हुए, जिसकी आदि है परंतु अंत नहीं है। (१७)


जैसे वृक्षों में सुवर्ण कुमार देवताओं का आनंददायक क्रिडास्थान शाल्मली वृक्ष श्रेष्ट है तथा वनों में नंदनवन श्रेष्ठ है, इसी तरह ज्ञान और चारित्र में भगवान महावीर स्वामी सबसे श्रेष्ठ है। (१८)


जैसे सब शब्दों मैं मेघ का गर्जन प्रधान है और सब ताराओं में चंद्रमा प्रधान है तथा सब गंधवालो में जैसे चंदन प्रधान है, इसी तरह सब मुनियों में अप्रतिज्ञ-अनासक्त  (इहलोक एवं परलोक सम्बंधी सभी कामनाओं से रहित) भगवान महावीर स्वामी प्रधान हैं (१९)


जैसे सब समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र प्रधान है। तथा नागकुमार देवों में धरणेंन्द्र सर्वोतम है एवं जैसे सब रसों में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेस्ठ है, इसी तरह सब तपस्वियों में श्रमण भगवान महावीर स्वामी श्रेस्ठ हैं (२०)


हाथियों में ऐरावत, मृगों में सिंह, नदियों मैं गंगा और पक्षियों में जैसे वेणुदेव गरुड़ श्रेस्ठ हैं, इसी तरह मोक्षवादियों में भगवान महावीर स्वामी श्रेस्ठ हैं। (२१)


जैसे योद्धाओं में विश्वसेन नामक चक्रवर्ती प्रधान हैं तथा फूलों में जैसे अरविंद (कमल) प्रधान हैं एवं क्षत्रियों में जैसे दांतवाक्य नामक चक्रवर्ती प्रधान हैं, इसी तरह ऋषियों में वर्धमान स्वामी प्रधान हैं। (२२)


दानों में अभयदान श्रेस्ठ है, सत्य में वह सत्य (अनवघ वचन - पाप रहित वचन) श्रेस्ठ है जिससे किसी को पीड़ा हो तथा तप में ब्रह्मचर्य उत्तम है इसी तरह लोक में ज्ञातपुत्र भगवान महावीर सवमि उत्तम हैं। (२३)


जैसे सब स्तिथि वालों में पाँच अनुत्तर विमानवासी एक भवावतारी देवता श्रेस्ठ हैं तथा सब सभाओं में सुधर्मा सभा श्रेठ है एवं सब धर्मों में जैसे निर्वाण (मोक्ष) श्रेस्ठ है, इसी तरह सब ज्ञानियों में भगवान महावीर स्वामी श्रेस्ठ हैं। (२४)


भगवान महावीर पृथ्वी की तरह समस्त प्राणियों के आधार हैं एवं आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने वाले और बाह्यभ्यंतर सभी प्रकार की आसक्ति से रहित हैं। प्रभु सभी प्रकार की सन्निधि से रहित एवं आशुप्रज्ञ-केवलज्ञानि हैं। भगवान महा समुद्र रूपी अनंत संसार को पार करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं। भगवान प्राणियों को अभय करने वाले तथा अनंत चक्षु अर्थात् अनंत ज्ञानी हैं। (२५)


भगवान महावीर स्वामी अरिहंत महर्षि हैं वे क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को जीते हुए अर्थात् अध्यात्म दोषों से रहित हैं तथा तो स्वयं पाप करते हैं और दूसरों से कराते हैं और पाप करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते हैं। (२६)


क्रियावादी , अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी इन सभी मतवादियों के मतों को जानकार भगवान यावज्जीवन संयम में स्तिथ रहे थे। (२७)


उत्कृष्ट तपस्वी भगवान महावीर स्वामी ने दुःख रूप अस्टविध कर्मों का क्षय करने के लिए स्त्री भोग और रात्रि भोजन छोड़ दीया था तथा सदेव तप में प्रवृत रहते हुए इस लोक तथा परलोक के स्वरूप को जानकार सब प्रकार के पापों को सर्वथा त्याग दीया था। (२८)


अरिहंत देव द्वारा कहे हुए युक्ति संगत तथा शुद्ध अर्थ और पद वाले इस धर्म को सुनकर जो जीव इसमें श्रद्धा करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं अथवा देवताओं के अधिपति इंद्र बनते हैं। (२९)



Comments

  1. प्रिय ब्लॉग लेखक,
    आपको e-plateform पर जिनशाशन की प्रभावना के लिए बहुत बहुत साधुवाद।

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  2. आप जब भी और कुछ ब्लॉग लिखें तो कृपया मुझे email भी कर देवे। atmbhl@gmail. com

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